जिम्मेदारियां

कितना बेबस हो जाता है इन्सान कभी-कभी सब उसी का होते हुये भी उसके खिलाफ सा ना चाह कर भी स्वीकार करना पडता उसे उन तमाम परिस्थितियों को जिनके खिलाफ वो हमेशा से था। फिर से बांध लेता है खुद को अपनो कि बनाईं जनजीरो से ऐसे दौर से कब आजादी मिलेगी उसको क्या या चलता रहेगा यही सिलसिला भावनाओं  कि आड़ में अपनो कि नाशुकरानी कर कर।       
  हमेशा कि तरह..........

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